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अत्रि॒र्यद्वा॑मव॒रोह॑न्नृ॒बीस॒मजो॑हवी॒न्नाध॑मानेव॒ योषा॑। श्ये॒नस्य॑ चि॒ज्जव॑सा॒ नूत॑ने॒नाग॑च्छतमश्विना॒ शंत॑मेन ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atrir yad vām avarohann ṛbīsam ajohavīn nādhamāneva yoṣā | śyenasya cij javasā nūtanenāgacchatam aśvinā śaṁtamena ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अत्रिः॑। यत्। वा॒म्। अ॒व॒ऽरोह॑न्। ऋ॒बीस॑म्। अजो॑हवीत्। नाध॑मानाऽइव। योषा॑। श्ये॒नस्य॑। चि॒त्। जव॑सा। नूत॑नेन। आ। अ॒ग॒च्छ॒त॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। शम्ऽत॑मेन ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:78» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्रीपुरुष क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यत्) जो (अत्रिः) त्रिविध दुःखरहित (वाम्) आप दोनों को (अवरोहन्) प्राप्त होता हुआ (योषा) स्त्री (नाधमानेव) जो याचना करती उसके समान (ऋबीसम्) सरल को (अजोहवीत्) अत्यन्त आह्वान करता है उसके साथ (श्येनस्य) वाज पक्षी के (नूतनेन) नवीन (शन्तमेन) अतिशय सुखकारक (जवसा) वेग के (चित्) सदृश मान से (आ, अगच्छतम्) आइये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो विद्वानों के अनुकरण से सरल स्वभाव को स्वीकार करके प्रयत्न करते हैं, वे सर्वदा सुखी होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अश्विना ! यद्योऽत्रिर्वामवरोहन् योषा नाधमानेव ऋबीसमजोहवीत् तेन सह श्येनस्य नूतनेन [शन्तमेन] जवसा चिन्मानेनाऽऽगच्छतम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अत्रिः) अविद्यमानत्रिविधदुःखः (यत्) यः (वाम्) युवाम् (अवरोहन्) अवरोहं कुर्वन् (ऋबीसम्) सरलम् (अजोहवीत्) भृशमाह्वयति (नाधमानेव) याचमानेव (योषा) (श्येनस्य) (चित्) अपि (जवसा) वेगेन (नूतनेन) (आ) (अगच्छतम्) गच्छतम् (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविवाध्यापकोपदेशकौ (शन्तमेन) अतिशयेन सुखकरेण ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये विद्वदनुकरणेन सरलभावं स्वीकृत्य प्रयतन्ते ते सर्वदा सुखिनो भवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वानांचे अनुकरण करतात व सरळ स्वभावाचे असून प्रयत्नशील असतात ते सदैव सुखी असतात. ॥ ४ ॥